गीता में श्री कृष्ण बताते हैं ऐसे रखें अपने मन को स्थिर...

बदलते मौसम में सर्दी गर्मी की तरह हैं सुख–दुख। भक्ति के नज़रिए से देखें तो यह संसार दुखों का घर है और एक सच यह भी है कि दुख के बाद सुख भी आते हैं। समझा जाए तो सुख क्षण भर के लिए आते हैं और दुख फिर से आएंगे। हम सभी अपने जीवन में निरंतर सुख-दुख का अनुभव करते हैं, इसीलिए गीता में योगिराज श्री कृष्ण कहते हैं। “हे! कौन्तेय क्षणभंगुर सुख दुख का आना और समय के साथ उनका चले जाना, ये सर्दी और गर्मी के आने-जाने के समान है”
इसी तरह जब मौसम बसंत का हो तो सुखद लगता है, वहीं जब ग्रीष्म ऋतु आती है तो सूरज का ताप हमारे शरीर को जलाने लगता है और हम उस बसंत के मोहक सुख को ढूंढते फिरते हैं। जब जुलाई भर वर्षा नहीं आती तो बसंत की छाया को हमारा मन और अधिक तरस जाता है। वहीं जब वर्षा की कुछ फुहारें पड़ती हैं तो मन को बेहद सुकून मिलता है और ग्रीष्म ऋतु की वेदना अलविदा कहती नजर आती है, परंतु यही वर्षा निरंतर होती रहे तो हमारे दुखों का कारण बन जाती है।
वहीं शरद ऋतु में राहत की साँस ले पाते हैं परंतु कुछ समय बाद फिर से ग्रीष्म ऋतु आकर शरीर में धूप को बाणों की तरह चुभती है और उस समय फिर से बसंत ऋतु का मनमोहक, छाया वाले मौसम का अनुभव करना हमें बेहद प्रसन्नता दे जाता है। इसी प्रकार हमारे जीवन में सुख-दुख हमारे साथ आँख मिचोली खेला करते हैं।
वहीं श्री कृष्ण जी कहते हैं, मनुष्य को चाहिए कि वह विचलित हुए बिना इन्हें सहन करना सीखे। जब बसंत ऋतु का सुख उठाया है तो ग्रीष्म ऋतु को सहन करने के लिए भी अपने आप को तैयार रखना होगा। सरल भाषा में समझा जाए तो श्री कृष्ण हमें गीता में यह उपदेश देते नजर आते हैं कि हमें हर परिस्थिति में अपने मन को समता में बनाए रखना चाहिए और इस समता को बनाए रखने के लिए सबसे बड़ा सूत्र जो महाराज कृष्ण देते हैं वह सहनशीलता है।
जीवन में कष्ट आते रहेंगे, समस्याएं आती रहेगी परंतु जब तक हम विचलित हुए बिना उनसे लड़ेंगे नहीं, तो पार नहीं पा सकेंगे, इसीलिए सुखों व दुखों को बिना विचलित हुए समग्र भाव से आने-जाने दें और मन की स्थिति को समता में बनाए रखें।