महान संत तुकाराम ने छत्रपति शिवाजी महाराज को इसलिए शिष्य नहीं बनाया…

महान संत तुकाराम जी का जीवन और योगदान
News Bharat Pratham Desk, New Delhi, 05 October 2025, Day Sunday, 08:05 IST
संत तुकाराम किस स्थान से थे
संत तुकाराम जी का जन्म सन् 1608 ईस्वी के आसपास महाराष्ट्र के देहू गांव (पुणे जिले) में हुआ था। वे एक साधारण किसान परिवार से थे, जिनका समाज में संबंध कुणबी जाति से माना जाता है। उनका परिवार भक्ति, कीर्तन और भगवान विट्ठल (विठोबा) की सेवा में समर्पित था। देहू गांव आज भी “तुकोबांच्या देहू” के नाम से प्रसिद्ध है।
तुकाराम जी किसकी भक्ति करते थे
तुकाराम जी भगवान विठ्ठल (विठोबा) की उपासना करते थे, जिन्हें वे अपने आराध्य पांडुरंग कहते थे। विठ्ठल भगवान, श्रीकृष्ण का ही एक रूप हैं, जिनकी पूजा विशेष रूप से पंढरपुर (महाराष्ट्र) में की जाती है। तुकाराम जी का जीवन विठ्ठल भक्ति, नामस्मरण और कीर्तन से परिपूर्ण था।
शिवाजी महाराज ने संत रामदास जी को अपना गुरु स्वीकार किया और उनके आशीर्वाद से हिंदवी स्वराज्य की नींव और भी दृढ़ हुई। संत रामदास जी ने शिवाजी को धर्म, नीति और प्रजा-सेवा का आदर्श पथ दिखाया। वे केवल संत ही नहीं, अपितु समाज-सुधारक और राष्ट्रनिर्माता भी थे।
संत तुकाराम जी कहा करते थे
“जब मनुष्य दंडवत प्रणाम करते हुए भगवान का नाम जपता है, तब स्वयं भगवान उसके पास आकर बैठ जाते हैं। जब वह बैठकर नाम जप करता है, तो भगवान उसके पास आकर खड़े हो जाते हैं। जब वह खड़े होकर नाम जप करता है, तो भगवान आनंद से नृत्य करने लगते हैं। और जब कोई भक्त नृत्य करते हुए नाम जप करता है, तब भगवान स्वयं उसे गले लगा लेते हैं।”
छत्रपति शिवाजी महाराज और संत तुकाराम का संबंध
संत तुकाराम जी का छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन पर गहरा आध्यात्मिक प्रभाव पड़ा। शिवाजी महाराज जब युवावस्था में थे, तब वे तुकाराम जी के कीर्तन और प्रवचन सुनने जाया करते थे। तुकाराम जी ने शिवाजी को यह सिखाया कि सच्चा राजा वही है जो अपनी प्रजा के सुख-दुख का ध्यान रखे और धर्म के मार्ग पर चले।
कहते हैं, एक बार शिवाजी महाराज ने संत तुकाराम को अपने दरबार में आमंत्रित किया और सोने-चांदी से सम्मानित करना चाहा, परंतु तुकाराम जी ने यह कहते हुए सब अस्वीकार कर दिया कि “राजा का धन प्रजा के कल्याण में लगे तो वही सच्ची भक्ति है।” इससे शिवाजी महाराज गहराई से प्रभावित हुए और उन्होंने तुकाराम को अपना आध्यात्मिक गुरु माना।
तुकाराम जी के उपदेशों ने शिवाजी को यह प्रेरणा दी कि युद्ध केवल सत्ता के लिए नहीं, बल्कि धर्म, संस्कृति और जनता की रक्षा के लिए होना चाहिए।
तुकाराम जी के कीर्तन में जब “पांडुरंग, पांडुरंग” का नाम गूंजता था, तब शिवाजी महाराज स्वयं उनके चरणों में बैठकर सुनते थे।
तुकाराम जी की शिक्षा ने शिवाजी को एक योद्धा और धर्मनिष्ठ राजा बना दिया। इसलिए कहा जाता है कि तुकोबा का कीर्तन सुनना शिवाजी के जीवन का आध्यात्मिक मोड़ था। उनके माध्यम से मराठा साम्राज्य में “भक्ति और शक्ति” का सुंदर संगम हुआ।
शिवाजी महाराज को संत तुकाराम जी ने शिष्य नहीं बनाया था।
शिवाजी महाराज ने उनसे आशीर्वाद अवश्य प्राप्त किया था, किंतु उनके गुरु संत समर्थ रामदास जी ही माने जाते हैं।
संत समर्थ रामदास जी
संत समर्थ रामदास जी का जन्म सन् 1608 में महाराष्ट्र के जांब गाँव में हुआ था। उनका वास्तविक नाम नारायण सूर्याजी ठोसर था। बचपन से ही उनमें भक्ति और अध्यात्म के संस्कार गहरे रूप से विद्यमान थे। कहा जाता है कि विवाह के समय ही उन्हें ईश्वर का साक्षात्कार हुआ और उन्होंने सांसारिक जीवन त्यागकर प्रभु श्रीराम और हनुमान जी की भक्ति का मार्ग अपना लिया।
रामदास जी ने बारह वर्षों तक प्रयागराज और काशी जैसे तीर्थस्थलों पर कठोर तप किया तथा रामनाम का गहन साधन किया। साधना पूर्ण कर वे महाराष्ट्र लौटे और समाज में जनजागरण का कार्य प्रारंभ किया। उन्होंने लोगों को यह संदेश दिया कि जीवन में शक्ति और भक्ति का संगम आवश्यक है।
उनका उद्देश्य समाज को नैतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से सुदृढ़ बनाना था। युवाओं में पराक्रम और राष्ट्रप्रेम जागृत करने हेतु उन्होंने अनेक स्थानों पर हनुमान मंदिरों की स्थापना की। उनकी अमूल्य रचना ‘दासबोध’ है, जिसमें नीति, धर्म और जीवन के व्यावहारिक मार्गदर्शन का अद्भुत संकलन मिलता है।
संत तुकाराम जी के अन्य नाम
महान संत तुकाराम जी को प्रेम से तुकाराम महाराज, तुकोबा, या तुकाराम भक्ति संत के नाम से भी जाना जाता है। कुछ जगहों पर लोग उन्हें तुकाराम भट्ट, तुकाराम पाटिल और तुकाराम कवी भी कहते हैं। महाराष्ट्र की भक्ति परंपरा में उनका नाम भगवान नामदेव, ज्ञानेश्वर और एकनाथ की परंपरा में अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है।
संत तुकाराम जी की भाषा
संत तुकाराम जी की रचनाओं की भाषा मराठी थी। उन्होंने अपनी भक्ति भावनाओं को लोगों तक पहुँचाने के लिए मराठी भाषा के माध्यम से अभंग रचनाएँ लिखीं। इसीलिए उन्हें “अभंग रचयिता संत तुकाराम” कहा जाता है।
इस कथन से तुकाराम जी यह संदेश देते हैं कि भगवान भक्त की भावना और समर्पण को देखते हैं, उसकी स्थिति को नहीं। सच्चे भाव से किया गया नामस्मरण, ईश्वर को अपने पास बुला लेता है।
तुकाराम जी के जीवन में भी अनेक कठिनाइयाँ आईं। उनकी पहली पत्नी और पुत्र का निधन अकाल के समय भोजन के अभाव में हो गया। इस दुखद घटना ने उनके जीवन को झकझोर दिया, पर उन्होंने इस पीड़ा को भी भगवान की परीक्षा समझा और भक्ति में और अधिक गहराई से डूब गए।
बाद में उनकी दूसरी पत्नी जीवाबाई (या गौरा) स्वभाव से कठोर थीं। वे कभी-कभी तुकाराम जी से नाराज़ होकर उन पर हाथ भी उठाती थीं, क्योंकि उन्हें लगता था कि तुकाराम संसारिक जिम्मेदारियों की उपेक्षा करते हैं। लेकिन संत तुकाराम जी ने कभी क्रोध नहीं किया। उन्होंने इस व्यवहार को भी भगवान की लीला और आशीर्वाद माना।
संत तुकाराम जी वे कहते थे
“यदि कोई हमें कष्ट देता है, तो समझो वह भी ईश्वर ही हमें हमारी परीक्षा लेने भेजता है।”
इसी सहनशीलता और अटूट भक्ति के कारण तुकाराम जी महान संत कहलाए। उन्होंने विपत्तियों को रोड़ा नहीं, बल्कि भक्ति की सीढ़ी बना लिया।
संत तुकाराम जी का कठिन समय और उससे उभरना
संत तुकाराम जी के जीवन में कई कठिन समय आए। वे बाल्यकाल से ही परिवारिक जिम्मेदारियों में उलझ गए थे। अकाल और व्यापार में हानि के कारण वे आर्थिक रूप से टूट गए। उनकी पत्नी जीवाबाई अक्सर उनसे कहती थीं कि भगवान की भक्ति छोड़कर परिवार का ध्यान दो, परंतु तुकाराम जी का विश्वास विठ्ठल पर अडिग था।
एक समय ऐसा आया जब अकाल पड़ा और लोगों को अन्न भी नसीब नहीं था। उसी दौरान तुकाराम जी का धान्य (अनाज) का व्यवसाय पूरी तरह नष्ट हो गया। उन्होंने अपने घर के सारे अन्न गरीबों को दान कर दिए। इसके बाद वे पूर्ण रूप से भगवद्भक्ति में डूब गए।
समाज के कुछ लोगों ने उन पर झूठे आरोप भी लगाए और उनकी अभंग पांडुलिपियों को नदी में फेंक दिया। तुकाराम जी ने दुखी होकर भगवान से प्रार्थना की और तप किया। कहा जाता है कि कुछ ही दिनों बाद वही रचनाएँ नदी से सुरक्षित बाहर आ गईं। इस घटना के बाद उनकी आध्यात्मिक शक्ति और प्रसिद्धि बढ़ गई।
उन्होंने कठिन समय में कभी आशा नहीं छोड़ी। उनके जीवन का संदेश यही था
“संकटों में भी नामस्मरण ही सच्चा सहारा है।”
इस प्रकार तुकाराम जी ने अपने धैर्य, भक्ति और सत्य के बल पर विपत्ति को विजय में बदल दिया।
संत तुकाराम जी के प्रसिद्ध भजन
“पांडुरंग पांडुरंग हरि विठ्ठल जय हरि विठ्ठल”
“अवघा रंग एक झाला”
“तुका म्हणे धावा विठोबा”
“माझे माहेर पंढरी”
“देहुजवळचा विठोबा माझा सखा”
संत तुकाराम जी के प्रसिद्ध पद (अभंग)
“तुका म्हणे आळसिया भक्त ना व्हावे”
“जे का रंजले गांजले त्यासी म्हणे जो आपुले”
“तुका आकाशाएवढा झाला”
“विठ्ठल विठ्ठल गाऊ नाम”
“नको देवा पैसा नको”